मंगलवार, 24 सितंबर 2013

सुधि नहि आवत.( विरह गीत )

सुधि नहि आवत. 
 
कैसे   है   निर्मोही   सजन   हमारे
  प्रीत  लगाई  के   बैठे   है   किनारे, 

असाढ़   मास   जब   मयूरा   बोले
 सुनकर   मोरा   तन  -  मन   डोले,

सावन    में    जब    बदरा    छाये
 देख   के   मोरा   जिया  डर   जाये,

  भादों   मास   जब   बिजुरी  चमके  
 जान   अकेली   आ    डर     धमके,

कुवांर- कातिक  आवन  कहि  गयो
 अगहन लागि सुध तबहु नहि लियो,

  कैसे  बन  गए  निर्मोही  बलम  मेरे 
   पूष    गयो   माघी    ने    मुह   फेरे, 

 फागुन   के   दिन    बाढन   लाग्यो
  चैत   में  चिंता   रात   भर   जाग्यो,

   वैशाखी  म  भी   नहि   आयो   माही 
   जेठ  तपन  अब  सहि  जावत   नाही,

  बारह   मास    बीत    सखी    जावत
    तबहूँ  बलम  को  सुधि  नहि  आवत, 

 धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 

49 टिप्‍पणियां:

  1. सच्ची में ये विरह गीत है
    उम्दा अभिव्यक्ति
    सादर

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  2. सुन्दर प्रस्तुति-
    आभार आदरणीय-

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  3. मर्मस्पर्शी गीत ....उम्दा अभिव्यक्ति

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  4. वाह वाह वाह धीरेन्द्र जी बहुत ही बढ़िया |

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  5. वाह। बारह महीनों की प्रेमी के इंतजार की टीस उत्‍पन्‍न्‍ा करती, मौसम के संग जोड़ता सुन्‍दर गीत।

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  6. बहुत ही सारगर्भित सुन्दर प्रस्तुति,धन्यबाद आपका।

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  7. वाह|| क्या कहने ..
    बहुत ही बेहतरीन है यह विरह गीत
    :-)

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  8. बिछोड़े को उद्दीप्त करती रचना -

    आवन कह गए अजहूँ न आये ,

    बीती सारी उमरिया

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  9. बिछोड़े को उद्दीप्त करती रचना -

    आवन कह गए अजहूँ न आये ,

    बीती जाए रे सारी उमरिया ,

    न लीन्हीं रे मोरी खबरिया।

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  10. आपकी रचना को पढकर मुझे कालिदास की किताब "ऋतुसंहार " की याद आ गई । प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

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  11. बारह मास बीत सखि जावत, तबहु प्रीतम को सुधि नही आवत।
    आह ये बिरहा की अगन।

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  12. बारहमासी विरह वेदना का सुंदर चित्रण..............

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  13. बढ़िया प्रस्तुति-
    शुभकामनायें आदरणीय-

    पूस फूस सा दिन उड़ा, किन्तु रात तड़पाय |
    दिवस बिताऊं ऊंघ कर, जाड़ा जियरा खाय |
    जाड़ा जियरा खाय, रजाई नहिं गरमाए |
    भर भर के उच्छ्वास, देह में अगन जलाए |
    फिर भी रविकर चैन, रैन का गया *रूस सा |
    दूरभाष के बैन, उड़ें ज्यों पूस फूस सा ||
    *गुस्सा

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  14. सुंदर प्रस्तुति धीरेंद्रजी..

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  15. .......... वाह धीरेन्द्र जी बहुत ही बढ़िया

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  16. निर्मोही कहाँ सुध लेता है , बहुत सुन्दर

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  17. विरह की आग तो हर मौसम में सताती है ...
    भावमय प्रस्तुति है ...

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  18. अहा !! लोकगीत याद दिला दिए आपने
    सुमधुर गीत ....धन्यवाद तो बनता है आपके लिये

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