सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

दिन हौले-हौले ढलता है,

दिन हौले-हौले ढलता है
 
बीती रातों के ,कुछ  सपने
सच
करनें को उत्सुक इतने

आशाओं के गलियारे में मन दौड़-दौड़ के थकता है,

दिन हौले-हौले ढलता है,
 
पिछले सारे ताने -बाने 
सुलझे कैसे ये जानें,


हाथों में छुवन है फूलों की,पर पग का गुखरु दुखता है,

दिन हौले-हौले ढलता है,
 
दिन के उजियाले में जितने
थे
मिले यहाँ  बनकर अपने,

जब शाम हुई सब चले
ये,सूनापन कितना खलता है,

दिन हौले-हौले ढलता है,


 

63 टिप्‍पणियां:

  1. हाथों में छुवन है फूलों की,पर पग का गुखरु दुखता है,
    बहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति बद्दुवायें ये हैं उस माँ की खोयी है जिसने दामिनी , आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार कैग [विनोद राय] मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन] नहीं हो सकते

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  2. धीरेन्द्र जी बहुत सुन्दर कविता कही आपने | भावनात्मक अभिव्यक्ति | सादर |

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  3. आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (20-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
    सूचनार्थ |

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  4. सपने तो हमेशा सच नही हो सकते,बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.

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  5. दिन होले-हौले ढले, जग सूना हो जाय।
    अंधियारे में अल्पना, नज़र कहीं ना आय।।
    --
    आपकी पोस्ट का लिंक आज के चर्चा मंच पर भी है।

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  6. मद्धिम रविकर तेज से , हो संध्या बेचैन ।
    शर्मा जाती लालिमा, बैन नैन पा सैन ।

    बैन नैन पा सैन, पुकारे प्रियतम अपना ।
    सर पर चढ़ती रैन, चूर कर देती सपना ।

    खग कलरव गोधूलि, बढ़ा देता है पश्चिम ।
    है कुदरत प्रतिकूल, मेटता संध्या मद्धिम ।।

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  7. उत्कृष्ट प्रस्तुति, सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति

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  8. बहुत सुन्दर भावत्मक रचना
    कभी चिट्ठियों में इजहार करके महीनों इन्तजार किया करते थे...
    आज तो हर दो मिनट में टूटते हैं दिल हजार बार
    मेरी नई रचना
    प्रेमविरह
    एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ

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  9. विक्रम जी की बेहतरीन रचना पढ़वाने का आभार

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  10. शब्दक्रम एकदम गीतिमय है। बहुत सुंदर।

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  11. आपकी रचना बहुत ही सुन्दर और भावनात्मक लगी ... अंतर्मन को छु गई ..मगर माफ़ कीजियेगा मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं ..इसलिए मई आपसे पूछना चाहती हु इस शब्द का अर्थ क्या होता है आपने जो लिखा है "गुखरु" इसका अर्थ कृपया मुझे बता दे तो आपकी बड़ी कृपा होगी।..
    ---सादर

    मेरी नै रचना पर भी अपनी उपस्थिति जरुर दर्शायें
    http://parulpankhuri.blogspot.in/2013/02/blog-post_4266.html

    http://parulpankhuri.blogspot.in/2013/02/blog-post_19.html

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    1. पंखुरी जी,,,,"गुखरू" = पैरों के तलुए में गाँठ के रूप में होने वाली बीमारी,जो चलने पर टीश (दर्द )होता है,,

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  12. सुन्दर रचना के लिए धन्यवाद।

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  13. दिन बीता है,
    मन यह सोचे,
    क्या पाया है?

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  14. बहुत प्‍यारा गीत..मन हौले-हौले कहता है..

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  15. दिन के उजियाले में जितने
    थे मिले यहाँ बनकर अपने,
    जब शाम हुई सब चले गये,सूनापन कितना खलता है,

    शायद इसी लिए कहते हैं की ये दुनिया रैन बसेरा है ... स्थाई कुछ नहीं रहता ...
    मनभावन रचना ...

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  16. दिल हौले हौले ढलता है... बहुत सुन्दर गीत... शुभकामनाएँ.

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  17. जब शाम हुई सब चले गये, सूनापन कितना खलता है...
    --------------------------------------------
    दिल की बात कहने को दिल करता है
    कहिये धीर साहब ...
    सच कह रहा हूँ न ?

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  18. दिन के उजियाले में जितने
    थे मिले यहाँ बनकर अपने,
    बेहद सुन्दर प्रस्तुती ख़ास कर ये शेर.

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  19. दिन के उजियाले में जितने
    थे मिले यहाँ बनकर अपने,

    जब शाम हुई सब चले गये,सूनापन कितना खलता है,

    दिन हौले-हौले ढलता है,

    लगता है विक्रम ने कलेजा काटकर लहू से लिख दिया है

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  20. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...शुभकामनायें ...

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  21. हाथों में छुवन है फूलों की,पर पग का गुखरु दुखता है,
    गीत की इस पंक्ति पर विशेष रूप से दाद......

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  22. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....
    शुभकामनायें ....

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  23. बहुत सुंदर भाव-भरी अभिव्यक्ति

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  24. धीरेन्द्र जी...बेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति.... अति सुन्दर!

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  25. सुन्दर गीत आभार साझा करने के लिए
    विक्रम जी के ब्लॉग पर पढ़ा था ...उनको बधाई !

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  26. दिन के उजियाले में जितने
    थे मिले यहाँ बनकर अपने

    जब शाम हुई सब चले गये ,सूनापन कितना खलता है

    दिन हौले-हौले ढलता है

    बहुत ही सुंदर

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  27. बहुत बढ़िया रचना पढ़ वाई है आपने .

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  28. बहुत खूब धीरेन्द्र जी

    http://mymaahi.blogspot.in/2013/02/blog-post_12.html

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  29. बहुत मधुर, भावपूर्ण एवं लयबद्ध रचना ! बहुत ही सुन्दर !

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  30. दिन के उजियाले में जितने थे मिले यहाँ बनकर अपने,
    जब शाम हुई सब चले गये,सूनापन कितना खलता है,
    सुन्दर ,बहुत ही सुन्दर !भावपूर्ण गीत.

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  31. आप की ये खूबसूरत रचना शुकरवार यानी 22 फरवरी की नई पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही है...
    आप भी इस हलचल में आकर इस की शोभा पढ़ाएं।
    भूलना मत

    htp://www.nayi-purani-halchal.blogspot.com
    इस संदर्भ में आप के सुझावों का स्वागत है।

    सूचनार्थ।

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  32. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..

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  33. दिन के उजियाले में जितने
    थे मिले यहाँ बनकर अपने,

    जब शाम हुई सब चले गये,सूनापन कितना खलता है,

    दिन हौले-हौले ढलता है,
    बहुत खूब, बहुत सुन्दर पंक्तियाँ.

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  34. बहुत सुन्दर..
    भावभीनी रचना...
    साझा करने का शुक्रिया.

    सादर
    अनु

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  35. बहुत सुन्दर वहा वहा क्या बात है अद्भुत, सार्थक प्रस्तुति
    मेरी नई रचना
    खुशबू
    प्रेमविरह

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  36. यही है जीवन का क्रम -धूप और छाँह का संगम !

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  37. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  38. श्रेष्ठ काव्य ... सुन्दर प्रतिक्रियाएँ .... रचना के बाद सभी टिप्पणियों को भी पढ़ने का अलग ही आनंद है।

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  39. दिन के उजियाले में जितने
    थे मिले यहाँ बनकर अपने,

    जब शाम हुई सब चले गये,सूनापन कितना खलता है
    bahut hi sunder geet badhai
    sunder geet padhvane ke liye aapka dhnyavad
    rachana

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  40. जब शाम हुई सब चले गये,
    सूनापन कितना खलता है,
    दिन हौले-हौले ढलता है...भावपूर्ण सुंदर रचना...शुभकामनायें...

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  41. पिछले सारे ताने -बाने
    सुलझे कैसे ये न जानें,sahi bat ...bahut mushkil hota hai suljhana .....bahut acchi abhwayakti ....

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  42. जब दिन रात की वाहों में पिगलता हैं।
    सुवह का एक नया सूरज निकलता हैं।।

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आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिए अनमोल है...अगर आप टिप्पणी देगे,तो निश्चित रूप से आपके पोस्ट पर आकर जबाब दूगाँ,,,,आभार,